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मति, श्रुति, अवधि जन्म से था जब ज्ञान मनःपर्यय पाया।। एक वर्ष छद्मस्थ मौन रह आत्म-साधना की तुमने।
उग्र-तपस्या के द्वारा ही कर्म-निर्जरा की तुमने।। श्रेणीक्षपक चढ़े तुम स्वामी मोहनीय का नाश किया। पूर्ण अनन्त-चतुष्टय पाया पद-अरहन्त महान् लिया।। विचरण करके देश-देश में मोक्ष-मार्ग उपदेश दिया।
जो स्वभाव का साधन साधे सिद्ध बने सन्देश दिया।। प्रभु के छयासठ गणधर जिनमें प्रमुख श्रीमन्दिर ऋषिवर।
मुख्य आर्यिका वरसेना थी नृपति स्वयंभू श्रोतावर।। प्रायश्चित, व्युत्सर्ग, विनय, वैय्यावृत स्वाध्याय और ध्यान।
अन्तरंग-तप छः प्रकार का तुमने बतलाया भगवान। कहा वाह्य तप छः प्रकारा का ऊनोदर, कायक्लेश, अनशन। रस-परित्याग सु व्रत परिसंख्या, विविक्त-शय्यासन पावन।।
ये द्वादश तप जिन मुनियों को पालन करना बतलाया। अणुव्रत, शिक्षाव्रत, गुणव्रत, द्वादशव्रत श्रावक का गाया।।
चम्पापुर में हुए पंच-कल्याण आपके मंगलमय। गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष कल्याण भव्य-जन को सुखमय।।
परमपूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत-शत वन्दन।
वर्तमान चौबीसी के द्वादशम जिनेश्वर नित्य नमन।। मैं अनादि से दुखी मुझे भी निज बल दो भव-वास हरूँ। निज-स्वरूप का अवलम्बन ले अष्ट-कर्म-अरि नाश करूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
महिष-चिन्ह-शोभित चरण, वासुपूज्य उर-धार। मन-वच-तन जो पूजते, वे होते भव-पार।। ॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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