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धरि ध्यान भए चिद्रूप भूप, गिरि मेरु समानौ अचल रूप। जय घात करम को नास ठान, उपजायो केवलज्ञान भान || 3 ||
तब समवशरण रचना बनाय, हरि हरष्यो मन आनन्द पाय। कुछ करिहों वरणन भक्ति भाय, जिम बोलत है पिक अम्ब खाय ॥ 4 ॥ जय पंच रतनमय धूलसाल, चउ गोपुर मन मोहन विशाल । जय मानसथम्भ सुरंग चंग, लखि मानी नावैं आय अंग || 5 || चउ वापि निर्मल नीर सार, शुभ बोलत जहँ चकवा मरार। जल भरी खातिका गिरद रूप, पुष्पनि की बाड़ी अति अनूप ||6|| शुभ कोट दिपें जिम तेन भान, नृतशाला में गावें कल्यान। पुनि वन शोभा वरणी न जाय, राजत वेदी बहु धुज उड़ाय॥7॥ फिर कोट हेममय सुघरसार, बहु कल्पद्रुम वन शोभकार। नव रतन राशि शोभित उतंग, ऊँचे मन्दिर जहँ बहु सुरंग ॥ 8 ॥ फिर फटिक कोट शोभा अमान, मंगल द्रव्यादिक धूप दान मधि द्वादश बनी सभा अनूप, मुनि सुर नर पशु बैठे सुभूप ॥ 9 ॥
विचि तीन रतनमय तुंग पीठ, वेदी सिंहासन कमल ईठ। जिन अन्तरिक्ष आनन सु चार, धर्मोपदेश दे भव्य तार || 10 सिर छत्र तीन उद्योत कार, तरु है अशोक जन शोक टार । गन्धोद विष्ट जुत पुष्प विष्ट, नभि दुन्दुभि बाजै मिष्ट-मिष्ट।।11।। अति धवल चँवर चैसठ ढुराय, भामण्डल छवि वरणी न जाय। ऐसी विभूति जिनराज देव, नमि-नमि फुनि - फुनि करहों जु सेव॥12॥ (घत्ता)
श्री अजित जिनेसुर, नमत सुरेसुर, पूजे खेचरगण चरणं। नरपति बहु ध्यावें, शिव पद पावें, रामचन्द्रभव भय हरणं ।।13।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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