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निखिल-गुण-निकेतं सिद्धचक्रं विशुद्धं, स्मरति नमति यो वा स्तौति सोअभ्येति मुक्तिम् ॥११॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल छंद अविनाशी अविकार परम-रस-धाम हो, समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो, जगत-शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो ॥१॥
ध्यान अग्निकर कर्म कलंक सबै दहे, नित्य निरंजन देव स्वरूपी कै रहे । ज्ञायक के आकार ममत्व निवारकै । सो परमातम सिद्ध न सिर नायकै ॥२॥
दोहा - अविचल ज्ञान प्रकाशते, गुण अनंत की खान ।
ध्यान धरै सो पाइए, परम सिद्ध भगवान ॥३॥
अविनाशी आनन्द मय, गुण पूरण भगवान । शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ ज्ञान ॥४॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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