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औरंगाबाद से बीस मील कचनेर ग्राम अति सुन्दर है। इसी ग्राम के अंदर प्रभुजी बना तेरा एक मंदिर है।।7।। सुना गया इक गैया नित प्रति सायंकाल को आती थी। स्तन से दध घरा करके वह अपने स्थान को जाती थी।।
संपतराय की दादी भी यह देख अचंभा करती है। स्वप्न में देखा तुझको प्रभुजी बाहर लाने को कहती है।।8। चौथे काल की मूरत क्या, तू सहायक नाथ अनाथ की है।
सौम्य छवि तेरी प्यारी तू मूरत पारसनाथ की है।। सुन्दर तेरी इस मूरत पर धरणेन्द्र ने फण फैलाये हैं।। सात तत्त्वके सूचक मानो फण ये सत दिखाये हैं।।9।। शत्रु पर तुमने क्षमा-दान की सच्ची छाप दिखाई है। कर्म कमठ के जीत की मानो ऊपर ध्वजा लगाई है।।
एक दिन मूरत की गर्दन पृथ्वी पर धड़ से चली गई। भूमि पर सीधी पड़ी परन्तु टूट-फूट नहीं तनिक हुई।।10।।
नई मूर्ति मंगवा करके जब स्थापना की शुभ खबर दई। यह सुनकर खबर जगत जाहिर आकर सब जनता जमा हुई।।
खंडित मूर्ति को कुएँ में जब लोग डालना चाहते हैं। तो स्वप्न हुआ मत पधरावो, कल्याण अगर सब चाहते हैं।।11।।
घी शक्कर में रक्खो इसको ताले कमरे के बंद करो। मूर्ति यह जुड़ जावेगी सब सात दिवस तक भजन करो।।
लच्छिराम जी लालजी ने घी शक्कर में रखी तुझको। कुलूप लगा कर बंद कोठरी सात दिवस रखा तुझको।।12।।
भजन-पूजन करते-करते कमरे के ताले टूट गये। मूर्ति की गर्दन स्वतः जुड़ी सब जै-जै करते खड़े हुये।।
यह तेरी दंत कहानी भी सब अक्षर-अक्षर सच्ची है। अब भी गर्दन की जुड़ी हुई रेखायें सबको दिखती हैं।।13।। पाप-कर्म या चोरी से हर व्यक्ति यहाँ पर डरता है। दूध में पानी बेचे तो स्तन से लहू टपकता है।।
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