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सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल-छवि वरनी न जात। तरु उच्च-अशोक रु सुमनवृष्टि, धुनि-दिव्य और दुंदुभी सुमिष्ट।।9।।
दृग-ज्ञान-शर्म-वीरज अनंत, गुण-छियालीस इम तुम लहंत। इन आदि अनंते सुगुनधार, वरनत गनपति नहिं लहत पार।।10।
तब समवसरण-मँह इन्द्र आय, पद-पूजन वसुविधि दरब लाय। अति-भगति सहित नाटक रचाय, ता थेई थेई थेई धुनि रही छाय।।11।
पग नूपुर झननन झनननाय, तननननन तननन तान गाय। घननन नन नन घण्टा घनाय, छम छम छम छम धुंघरू बजाय।।12।।
दृम दृम दृम दृम दृम मुरज ध्वान, संसाग्रदि सरंगी सुर भरत तान। झट झट झट अटपट नटत नाट, इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट।।13।। ____ पुनि वंदि इंद्र सुनुति करंत, तुम हो जगमें जयवंत संत। फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग-निरोध्यो परम-इष्ट।।14।। सम्मेद-थकी तिय मुकति-थान, जय सिद्ध-सिरोमन गुननिधान। वृंदावन वंदत बारबार, भवसागर” मोहि तार तार।।15।।
(छन्द घत्तानंद) जय अजित कृपाला, गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपति। वर सुजस उजाला, हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द मदावलिप्तकपोल) जो जन अजित जिनेश, जजें हैं मन-वच-काई।
ताको होय अनन्द, ज्ञान-सम्पति सुखदाई। पुत्र-मित्र धन-धान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे। सकल शत्रु छय जाय, अनुक्रमसों शिव पावे।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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