________________
योग-चांचल्य हुआ अवरुद्ध, सकल चैतन्य निकल निष्कंप।
अरे! ओ योग रहित योगीश! रहो यों काल अनंतानंत।। जीव कारण-परमात्म त्रिकाल, वही है अंतस्त्व अखंड। तुम्हें प्रभु! रहा वही अवलंब, कार्य परमात्म हुए निर्बन्ध।। अहो! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल पुनीत। अतीन्द्रिय सौख्य चिंतन भोग, करो तुम धवलमहल के बीच।।
उछलता मेरा पौरुष आज त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ।
अरे! तेरी सुख-शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम प्रभा।। प्रभो! बीती विभावरी आ, हुआ अरुणेदय शीतल छांव।
झूमते शांति-लता के कुंज, चलें! अब अपने उस गांव।। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा चिर-विलवास चिद्ब्रह्म में, चिर-निमग्न भगवंत। द्रव्य-भाव स्तुति से प्रभो! वंदन तुम्हें अनंत।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
740