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अशरन - शरन उदार जिनेशा, जय-जय समवशरण आवेशा || 3 || जय-जय केवलज्ञान-प्रकाशी, जयचतुरानन हनि भवफांसी। जय त्रिभुवनहित उद्यमवंता, जय जय जय जय नमि भगवंता ॥4॥ जैतु सप्त तत्त्व दरशायो, तास सुनत भवि निज-रस पायो । एक शुद्ध अनुभव निज भाखे, दो विधि राग-दोष छै आखे॥5॥ दो श्रेणी दो नय दो धर्म, दो प्रमाण आगमगुन शर्मं । ती लोक त्रयोग तिकालं, सल्ल पल्ल त्रय वात बलालं ॥6॥ चार बन्ध संज्ञा गति ध्यानं, आराधन निछेप चउ दानं । पंचलब्धि आचार प्रमादं, बन्धहेतु पैंताले सादं॥7॥ गोलक पंचभव शिव-भौनें, छहों दरब सम्यक अनुकौने । हानि - वृद्धि तप समय समेता, सप्तभंग - वानी के नेता ॥ 8 ॥ संयम समुद्धात भय सारा, आठ करम मद सिध-गुन धारा । नवों लबधि नवतत्त्व प्रकाशे, नोकषाय हरि तूप हुलाशे ॥9॥
दशों बन्धके मूल नशये, यों इन आदि सकल दरशाये। फेर विहरि जगजन उद्धारे, जय-जय ज्ञान - दरश अविकारे॥10॥ जय वीरज जय सूक्षमवन्ता, जय अवगाहन गुण वरनंता। जय-जय अगुरु लघू निरबाधा, इन गुनजुत तुम शिवसुख साधा।।11।। कहत के गनधारी, तौ को समरथ कहे प्रचारी । तातैं मैं अब शरनें आया, भवदुख मोटि देहु शिवराया || 12 बार-बार यह अरज हमारी, हे त्रिपुरारी हे शिवकारी | पर-परणति को वेगि मिटावो, सहजानन्द स्वरूप भिटावो ॥13॥ वृन्दावन जाँचत शिरनाई, तुम मम उर निवसो जिनराई । जबलों शिव नहिं पावों सारा, तबलों यही मनोरथ म्याहा ॥14॥
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