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सिंघसेन नरेसुर के चय सुत भयेजी। सूर्यादे माताजी, जग पुण्य-विख्याताजी,
तिनके जगत्राता गर्भविर्षे थयेजी।1। कातिक अँधियारीजी, परिवा अविकारीजी,
साकेत-मझारि कल्याण हरि कियोजी। षट्मास अगारेजी, मणि-स्वर्ण-घनेरेजी,
वरषे नृपकेरे मन्दिर धनंजयो जी।2। द्वादशि अँधियारीजी, जनमे हितकारीजी,
प्रभु जेठ-मझारि सुरासुर आयकै जी। सुरगिरि लै आये जी, भव-मंगल गाये जी,
अभिषेक रचाये पूजे ध्यायकै जी।3। फिर पितु घर लायेजी नचि तूर बजायेजी,
लखि अंग नमाये मात-पिता त जी। तन हेम-महाकविजी, पच्चास धनू रविजी, लख-तीस कहे कवि आयु भई सबै जी।4। नृप-पदवी-धारीजी, लखि-पणदह सारीजी,
सब अनिति विचारि तपोवनकू गये जी। बदी जेठ द्वादशिजी, तप देखि स्वरा ऋषिजी,
पद-पूजि गये नसि पाप सबै गये जी।5। षष्टम करि पूरोजी, भोजन-हित सूरोजी,
पुर धर्म सनूरो आवत देखिकैजी। नवभक्ति-थकी पयजी, विसाख तहाँ दयजी, मणि-विष्टि अखय करि सुरगण पेखिकै जी।6। धरि ध्यान शुकल तबजी, चउ-घाति हनै जबजी,
सुर आय मिले सब ज्ञान-कल्याण ही जी। बदी चैत अमावशिजी, जखि भक्ति तुहे वशिजी, समवादि रच्यौ तसु उपमा भी नहीं जी।7।
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