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प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जब लों वसु कर्म नहीं नसिये । तब लों तुम ध्यान हिये वरतो, तब लों श्रुत चिन्तन चित्त रतो ।
तब लों व्रत चारित चाहतु हों, तब लों शुभ भाव सुगाहतु हों। तब लों सत-संगति नित्त रहो, तब लों मम संजम चित्त गहो ॥१३ ॥
जब लों नहिं नाश करौं अरि को, शिव-नारि वरौं समता धरि को। यह द्यो तब लों हमको जिन जी, हम जाचतु हैं इतनी सुन जी ॥१४॥
घत्तानन्द श्रीवीर-जिनेशा नमित-सुरेशा, नाग-नरेशा भगति भरा । वृन्दावन ध्यावै विघन नशावै, वांछित पावै शर्म-वरा ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
श्री सनमति के जुगल पद, जो पूजै धरि प्रीति । वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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