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समुच्चय जयमाला
दोहा सम्यक्-दरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय ।
अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलैं दव-लोय ॥ जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करम-बन्ध कट जावें । तासौं शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावें।। ताको चहुँगति के दुःख नाहीं, सो न परै भव-सागर माँहीं। जनम-जरा-मृत दोष मिटावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै ॥ सोई दशलच्छन को साथै, सो सोलह कारण आराधै ।
सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावै ॥ सोई शक्रचक्रिपद लेई, तीन लोक के सुख विलसेई । सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावे।।
सोई लोकालोक निहारे, परमानन्द दशा विसतारे । आप तिरै औरन तिरवावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावै ॥ दोहा - एक स्वरूप प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय ।
तीन भेद व्योहार सब द्यानत को सखदाय॥ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रेभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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