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भस्म घातिया कर वरवीर, केवलज्ञान उपायो धीर।12। वरष अढाई लख उपदेश, भविजन भव” तारि असेश। शेष मास एक आयु जु रहो, गिरसमेद पहुँचे प्रभु सही।13। जोग-निरोधि करे समभाव, हानि अघाति भये शिवराव। चतुर्निकाय देवता आय, उत्सव कीनों मंगल गाय।14। सो मंगल दे जिनपति मोहि, जोरि उभै कर विनऊँ तोहि। जो चर-अचर लोकत्रय मांहि, तुम” परणति छानी नांहि।151
याते मो मन की सब बात, हो त्रिभुवनपति कर विख्यात। रामचन्द्र विनवै प्रभु तोहि, धर्मनाथ जिन दे शिव मोहि।16।
(घत्ता छन्द) इति श्री जिनधर्म, गुणगणपरमं जो भवि मनवचनतन गावै। लहि सुर-सुखसारं, अमल-अपारं, नर द्वै शिव-सुख बहु पावै।।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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