________________
जूँ तुम चरन दोउ कर जोर, प्रभु लखिए अब ही मम ओर । कहै बखतावर रत्न बनाय, जिनेश हमें भव पार लगाय ॥ १६ ॥
घत्ता
जय पारस देवं सुरकृत सेवं, वंदत चरण सुनागपती । करुणा के धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥१७॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामि ।
अडिल्ल
जो पूजै मनलाय भव्य पारस प्रभु नित ही । ताके दुख सब जाय भीति व्यापै नहिं कित ही ॥ सुख संपत्ति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे । अनुक्रमसौं शिव लहै, रतन इमि कहै पुकारे ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
632