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जय जय तेरह में अरहंता, जुग नभ पन वसु नव वसु तंता।।
एते राजतु हैं चतुरानन, हम वन्दैं पद थुतिकरि आनन। जय अजोग गुण में जे देवा, मनसौ ठानों करों सु सेवा तित तिथि अ इ उ ऋ लृ भाषत, करि थिति फिरि शिव आनन्द चाखत। ए उत्कृष्ट सकल गुणथानी, तथा जघन मध्यम जे प्रानी।। तीनों लोक सदन के वासी, नित गुण परज भेद परकाशी। तथा और द्रव्यन के जेते, गुण परजाय भेद हैं तेते।। तीनों काल त अनन्ता, सो तुम जानत जुगपत सन्ता। सोई दिव्य वचन के द्वारे, दे उपदेश भविक उद्धारे || फेरि अचल थल वासा कीनों, गुण अनन्त निज आनन्द भीनों। चरम देह तैं किंचित ऊनो, नर आकृति तित हैं नित गूनों ।। जय जय सिद्ध देव हितकारी, बार बार यह अरज हमारी। मोकौं दुःख सागर तें काढ़ो, वृन्दावन जाँचतु हैं ठाढ़ो।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
जय जय जिनचंदा पद्मानन्दा, परम सुमति पद्माधारी। जय जन हितकारी, दया विचारी, जय जय जिनवर अविकारी || (छन्द-रोड़क)
जजत पद्म पद-पद्म सद्म ताके सुपद्म
वृद्धि सुमित्र सकल-आनंदकंद शत।
लहत स्वर्गपदराज, तहाँतें चय इत आई। चक्रीको सुख
भोगि अंत शिवराज कराई ||
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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