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विमलाउर अवतार जेठ वदी छठि लियौ,
गर्भकल्याणक इन्द्र सबै मिलि कियौ।। कियो गरभकल्याण सुरपति रुचिकवासिनिप्रति कह्यौ, तुम करहु सेवा जननिकेरी छप्पन, सुन करि सुख लह्यौ।
फुनि धनद वर्षा रतनकेरी मास नव षट् लों करी, वा समै हिरदै बसहु मेरे धन्य दिन धनि वा घरी।1।
फागुन ग्यारसि कृष्ण ज्ञान त्रयजुत भये, चले सिंघासन मौलि अवधि लखि हरि नये। सब मिलि उत्सव ठानि इन्द्र शत आयही,
मेरु शिखर ले जाय स्नान करायही। कराये सनपन पूज कीनी, बसन-भूषण धारही, लखि रूप तृपति न इन्द्र हूवो सहसलोचन कारिही। नृप विमल के दरबार सुरपति नृत्य ताण्डव अति कर्यो, श्रेयांस नाथ उचारि वासव पिता लखि आनन्द भयौँ।।2।।
श्रमजल-रहित शरीर आदि संहनन लह्यो, आदि लसै संस्थान धवल श्रोणित कह्यौ। बल अनन्त वपु-शोभ नहीं मल तन विषै,
शुभ-लच्छिन शुभगन्ध बैन हितमिल लखै।। अखै हितमित सहज अतिशय लहे दस जिन-जनमही, तन हेम अस्सी-दण्ड-आयु, सुलाख-चवरासी कही। करि राज वरस वियाल लखही त्यागि तृणवत वन गये, सुर-असुर फाल्गुन, कृष्ण, ग्यारसि, ठानि उत्सव सब नये।3।
धरत चरित मन, ज्ञान जिनेश्वरकू भयो, षष्ठम पूरण ठानि अरिठपुर में गयो। तहां दयो पयदान नाह नरनन्द ही,
वरसे रतन अपार भयो सुख कन्द ही।। सुखकन्द बरस उभै कयौं तप घोर द्वादश विधि तदा,
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