________________
असिध्यान-शुकल थकी हने, चतुघाति दुस्तर विधि जदा। सुर-असुर ज्ञान-कल्यान पूजा, ठानि बहु थुति उच्चरी, सौ द्यौस पावन माघ मावस, सकल मंगल की घरी।4।
तब ही केवलज्ञान भयो लखि धनद ही, समोशरण रचि सार लखे सुखवृन्द ही। मध्य महा त्रयपीठ कमलपर जिन ठये,
अन्तर अंगुल च्यारि अनन्त चतुष्टये।। भये अनन्त चतुष्ट प्रभु, सिर छत्र तीन विराजही, जखि चंवर चवसठि ढरे, अतिसित थकी शशिदुति लाजही।
सुर पुष्पवृष्टि रु बजे दुन्दुभि, तरु अशोक सुहावनो, दिव्यधुनि सुख होत श्रवणन, प्रभामण्डल पावनो।5।
शत-योजन सुभिक्ष व्योमगति हलत ना, छाप न आनन च्यारि भौंह चखि चलत ना।
सब-विद्या-परमेश न प्राणीवध हवै,
ब. केश नख नाहिं क्षुधादि न सम्भवै।। सम्भवै मागधि भाष सब जन, तोष षट्क्रतु फल फलै,
सब शत्रु मैत्री ठान अठ-दह मुकरभू वृष चल चले। जुत-गन्धवात गन्धोदि वरषा, विमल-नभ सुर जय करे, खित वात सोधे द्रव्य-मंगल, कमल पद-तल सुर धरै।6।
इम गुण-युक्त जिनेश, विहरि भवि तारही, बरस लाख-इकबीस, ज्ञान प्रभु धारही।
शेष रह्यो इक मास, समेदाचल ठये, हनि अघाति शिवथान, पूनम श्रावण गये।। गये श्रावण शुकल पूनम, मोक्ष तब हरि आयही, वसुभेव पूजा ठानि उतसव, मोक्षमंगल गायही। सो मोक्षमंगल देहु मोकू, श्रेयजुत श्रियनाथ जी, चन्दराम ध्यावे वंदि सतवें, जोरिमैं जुग हाथ जी।7।
191