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(घत्ता)
श्री वर्द्धमान तुम गुणनिधान उपमा न बनी तुम चरनन की। है चाह यही नित बनी रहे अभिलाष तुम्हरे दर्शन की।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
अष्टकर्म के दहन को पूजा रची विशाल | पढ़े सुनें जो भाव से छूटे जग जंजाल।।1। संवत जिन चौबीस सौ, है बांसठ की साल। एकादश कार्तिक वदी पूजा रची सम्हाल ||2||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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