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आताप पाप पर जय पाकर, मन का सन्ताप जलाना है। जो आत्मा को कंचन कर दे, ऐसा ईंधन दहकाना है ।। संहनन संज्वलन सहन नहीं, इनको झुलसाने आया हूँ। जो आत्मस्वरूप अनूप करे, वह धूप चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
तुमने आगम को अपना कर, परमागम के पथ को परखा। संसार समागम को तजकर, परमातम फल का स्वाद चखा।
कर्मों के फल पाते पाते, निष्फल फल से घबराया हूँ। जो फल पाकर तुम सफल हुए, ऐसा फल पाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
ये दुर्दमनीय कलुषताएँ, जो क्षमताएँ हर लेती हैं। मेरी अर्हन्त अवस्था को, जो प्रकट न होने देती हैं।
अपने चिन्तामणि-चेतन को, मैं बिखरा - बिखरा पाता हूँ।
आठों दुःख-कर्म नशाने को, आठों शुभ-द्रव्य चढ़ाता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
पंचकल्याणक
सोलह सपने मरु देवी ने, देखे देवों पर सुखदाई। कृष्णा आषाढ़ दुतिया के दिन, दैदीप्य गर्भ में निधि आई।
इन सपनों का फलितार्थ जान, मरूदेवी मन में हर्षाई। मानों पुण्योदय के फल से, यह कल्पलता सी निधि पाई।। ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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