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उत्कर्षण औ अपकर्षण की, आकुलताएँ भरमाती है। मन के मधुवन में ममताएँ, मन-मधुकर को बहकाती है।। तन्दुल सा निष्कलंक जीवन, मैं निज निःशंक न पाता हूँ।
आत्मिक मयंक पद पाने को, तन्दुल की भेंट चढ़ाता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
मेरे विलास के जीवन में, सार्थक विकास मुरझाया है। समरस सुवास का नाम नहीं, मन में मधुमास समाया है।। अपने दुखदाता जीवन में, सुखसाता कहीं न पाता हूँ।
आतम-उपवन महकाने को, पुष्पों की भेंट चढ़ाता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।40
काषायिक छलबल का रिपुदल, पुद्गल को सबल बनाता है।
पर्याय-परिग्रह का संग्रह, मन में विग्रह उपजाता है।। चक्रेश्वर बनकर वसुधा का, मैं क्षुधा न कम कर पाया हूँ।
मृगतृष्णा पर जय पाने को, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
कर्मों की मिथ्याती जगमग, मेरा मन बहुत रिझाती है। अध्यात्म-दीप की दिव्य-ज्योति, किंचित भी मुझे न भाती है।।
उर के अज्ञान अंधेरे में, अपना उत्थान न भाता है।
शिव की समीपता पाने को, चरणों में दीप जलाता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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