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क्रोध-मान-माया-लालच भी, क्षण भर में हो चूर।।
आत्मशान्ति की इस बेला में, रत्नत्रय धारण कर। छुटकारा हो भव बन्धन से, मन-वच-तन वश में कर।। दशलक्षण धर्मों को धारें, जन-जन में कोई भेद नहीं। विश्व धर्म यह है सबका, जैनो का ही अधिकार नहीं।। मुनिनायक योगीश्वर हैं प्रभु, विमल वर्ण रवि तम-हारी। शरणागत जान जन्म-मरण से, मुक्त बनें निज-पद धारी।। तुम्ही आद्य-अक्षय-अनन्त प्रभु, ब्रह्मा-विष्णु या शंकर।। सहस्र नाम से जानें जन-जन, हे प्रभु तुमको आदीश्वर।।
चैत बदी नवमी को मेला, लगता यहाँ मंगलकारी। अभिनन्दन के योग्य चरण, हम वन्दन करते भवतारी।। संवत् दो सहस पैंतीस की, थी चैत बदी अष्टम प्यारी। अज्ञानियों की थी विफल हुई, विध्वंस योजना अविचारी।।
बुझी ज्योति जलधारा फूटी, रहा उपद्रव भी जब तक। अतिशय कोई समझ न पाया, संकट टला नहीं तब तक।। धन्य-धन्य मुनि दर्शन सागर, धर्म ध्वजा-यहाँ फहराई। आत्म-धर्म का बोध दिया, इक ज्ञान की ज्योति जगाई।। आचार्य देशभूषण जी को, जब हुई अतिशय-जानकारी।
आए थे वे प्रभु वन्दन को, हुआ महोत्सव भारी।।
संवत् दो हजार अड़तीस में, हुई प्रतिष्ठा प्यारी। बिन प्रभु के तो समोशरण भी, कहाँ लगें मंगलकारी।।
छम-छम धुंघरू बाजे, अक्षय तृतीया हितकारी। गन्धोदक की वर्षा होती, प्रभु की महिमा न्यारी।। लघु पंचकल्याणक विधान, फिर हुआ क्षेत्र पर भारी। यह भी आदीश्वर की महिमा, सुन लो अचरजकारी।। धन्य-धन्य आचार्य विमलसागर, समता का दिग्दर्शन।
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