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तब मात श्यामा गर्भ आये, लोकत्रय में सुख भये।। सुर-असुर के नय मुकट कंपे, पीठ सब हरि आय ही। गर्भकल्यान महन्त महिमा, ठानि मंगल गाय ही।।1।। षट्-नव-मास त्रिकाल ही जगसार हो, वरषे रतन अपार। बदी दशमी वैशाख की जगसार हो, जिन जनमे तिहँबार।। __ तिहँबार घण्टा आदि बाजे, सबै सुर मिलि आयही। जिन लेय पाण्डुक वन नह्वाये, क्षीर-जल शुभ ल्यायही।।
सिंगार करि पितु मात सोंपे, नृत्य ताण्डव हरि कर्यो। लखि हृदै हरषित भये दम्पति, नाम मुनिसुव्रत धर्यो।।2।। श्याम-वरण तन तुंग है, जगसार हो, बीस धनुष परिमान। तीस सहस वृष आयु है, जगसार हो, कछ-लांछिन शुभ जान।।
शुभ राजपद दस सहस कीनो, त्यागि तृणवत् वन गये। नमः सिद्धेभ्यः कहि लोंच कीनो, ध्यान में प्रभु थिर थये।।
तबही भयो मतिज्ञान सुर-नर, पूजि पद गुण गाइये। वैशाख दशमी कृष्ण चम्पक वृक्ष तालि व्रत भाइये।।3।। करि षष्टम मिथुला गये, जगसार को, भोजन-हित जिनराय। विश्वसेन-नृपजी दयो, जगसार हो, पय लखि सुर हरषाय।।
हरषाये सुर आश्चर्य कीनो, पंच फिरि वन जायही। तप करे ग्यारा वरष द्वादश, भाँति निरभै थायही।।
वैशाख नवमी कृष्ण हरिये, घाति-चउ धरि ध्यानही। लहि ज्ञान लोक-अलोक पेख्यो, भयो बोधकल्यानही।।4।। समोशरण धनपति रच्यो, जगसार हो, मानसथम्भ-त्रिशाल। चउ-चउ गोपुर सोहने, जगसार हो, खाई सजल मराल।। मराल वन-वन कल्पतरु, फुनि चैत्र चम्पक अम्बही। धुन शैल सरित सतूप सुर, तिय नचै हलत नितम्बही।। मधि सभा द्वादश सभामण्डप, कमल-आसन जिन ठये।
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