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जयमाला
दोहा
उनतिस अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय । मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ॥
चौपाई
जैनधर्म में शंक न आनै, सो निःशंकित गुण चित ठानै । जप तप कर फल वांछै नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माहीं ॥१॥ पर को देख गिलानि न आनै, सो तीजा सम्यक् गुण ठानै । आन देव को रंच न मानै, सो निर्मूढता गुण पहिचानै ॥२॥ पर को औगुण देख जु ढाकै, सो उपगूहन श्रीजिन भाखै । जैनधर्म तैं डिगता देखै, थापै बहुरि स्थिति कर लेखै ॥ ३ ॥ जिन-धरमी सौं प्रीति निवहिये, गउ-बच्छावत वच्छल कहिये । ज्यों त्यों करि उद्योत बढ़ावै, सो प्रभावना अंग कहावै ॥४ ॥
अष्ट अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टी कहिये सोई।
अब गुण आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ॥५ ॥ व्यंजन अक्षर सहित पढ़ीजै, व्यंजन- व्यंजित अंग कहीजै । अर्थ सहित शुध शब्द उचारै, दूजा अर्थ समग्रह धारै ॥६ ॥ दु तीजा अंग लखीजै, अक्षर - अर्थ सहित जु पढीजै । चौथा कालाध्ययन विचारै, काल समय लखि सुमरण धारै ॥७ ॥ पंचम अंग उपधान बतावै, पाठ सहित तब बहु फल पावै । षष्ठम विनय सुलब्धि सुनीजै, वाणी बहुत विनय सु पढ़ीजै ॥८ ॥ जापै पढ़े न लोपै जाई, अंग सप्तम गुरुवाद कहाई ।
गुर
की बहुत विनय करीजै, सो अष्टम अंग धर सुख लीजै ॥९ ॥ यह आठों अंग-ज्ञान बढ़ावै, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावै । अब आगे चारित्र सुनीजै, तेरह - विध धर शिव-सुख लीजै ॥१० ॥
छहों काय की रक्षा कर है, सोई अहिंसा व्रत चित धर है ।
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