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धूप गंध लेय मैं सुअग्नि संग जारिये । तास धूप के सुसंग कर्म अष्ट वारिये ॥ पाश्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
खारकादि चिर्भटादि रत्नथाल में भरूँ। हर्षधारिक जजू सुमोक्ष सौख्य को वरूँ ॥पार्शव. ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति ।
नीर गंध अक्षतान् पुष्प चरु लीजिये।
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तैं जजीजिये । पार्शवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपद-प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक शुभ प्राणत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये ।
वैशाख तनी दुति कारी, हम पूजें विघ्न निवारी ॥ ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
जनमें त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता ।
श्यामा तन अद्भत राजै, रवि कोटिक तेज सु लाजै ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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