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लोकालोक निहारि, लखे कछु नाहिं छिपायो।।2।। भाख्या ज्यों कर माँहि, सिधारथ धारि निहारे,
अथवा अंगुरी रेख, लखे कर-जुत इकवारे। ऐसौ ज्ञान अपार, और कहुँ नाहिं सुन्यो है, दरसन को परताप, तुहे जिन माँहि भन्यौ है।।3।। मैं दुख पायो घोर, चतुरगति माँहिं घनेरे,
तुमतें छाने नाहिं, कहा भाखू जिन मेरे। पय शिशुकी सब बात, ख्यापित जननी जाने, माँग्या बिन नहिं देहि, तोय पयधन न खाने।।4।। देखो करम अपार सुभट जड़ चेतन नाहिं,
चेतन] करि रंक, चोर जिम बाँधत जाहीं। सातों अवनि मझारि नरक दारुण दुख देही, कोऊ सर– नाहिं, धरम बिन निहचै येही।।5।। तिरयंचगति दुख घोर, सहे बिन संजम धारे,
भूख-प्यास लदि भार मार दे पीठ मझारे। मारत बधकर धाय, जाल मधि उड़न पखेरू, पकरि कसाई लेय, सरनि नाहिं जिहिवेरू।।6। मानुष गति कुल नीच, बिकल इन्द्र चखि नाहिं,
भूपति आगे दौरि, तुबक काँधे धरि जाहीं। अहि-निशि चैकी देय मेह सिय घाम सहे ही, बिन दरसन दुख येह, घने चिरकाल लहे ही।।7।।
कोऊ पुन्यवस आय, घाल तपतें सुर थायों, हस्ती घोटक बैल, महिष असवारी धायो।
पूरन आयु जु थाय, तबै माला मुरझानी, आरति तें तजि प्रान, कुसुम भव पाय अज्ञानी।।8।।
ऐसे दुःख अपार, सहे थिरता नहिं पाई,
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