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क्रोध-मन-छल-लोभ-थकी दिन-दिन अधिकाई। तुम करुणानिधि लेखि, सरनि आयो ततकारी, दुख को कर निरवार, अहो जगपति जगतारी॥9॥
जगनायक जगदीश, जगोत्तम दृष्टि निहारो, मोर्चे दास विचारि, करो विपतें निरवारो। जाव सुसंगति पाय, सहे दुख और न होती, यह निश्चै करि जान लखे तुम बानी सेती।।10।
करम विचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई, अगनि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई।
ऐसे या वपुसंग सहे, दुख और न सेती, धनि बानी तुम देवसुनी गुरु के मुख एती।।11। तुम अनुकंप पसाय, तनँ दुर-ध्यान विकारो,
वरनादिकतें भिन्न, लखू चिद्रूप हमारो।
जोति स्वरूपी देव, बसै याही घट माहीं, तुमको ढूँढूँ सुथान, लखू तुम ध्यान उपाहीं।।12।।
तेरे ध्यान-प्रताप, करम जरि जाय अनन्ता, रामचन्द्र करि ध्यान लहे सुख नर गुणवन्ता। इह भव सुक्ख अपार, और भव सुर-पद पावै, अनुक्रमतें निरवान, जिनके सुर धर करि गा३।।13।।
(दोहा) वसु द्रव्यले सुध भवतें, जनूँ तिहारे पाय। देहु देव शिव मुझ अबै, अहो चन्द दुति राय।।14।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभस्वामिने महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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