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सम्यक् दर्शन मूल अहो चारित्र वृक्ष पल्लवित हुआ, स्वानुभूति मय अमृत फल आस्वा, अति ही तृप्त हुआ। मोक्ष-महाफल भी आवेगा, निश्चय ही विश्वास अहो, निर्विकल्प हो पूर्ण लीनता, फल पूजा का प्रभू अहो।
निर्वाछक आनन्दमय, चाह न रही लगार,
भेद पूजक-पूज्य का, फल पूजा का सार। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् तत्त्व स्वरूप न जाना नहीं यथार्थतः पूज सका,
रागभाव को रहा पोषता, वीतरागता से चूका। काल लब्धि जागी अंतर में भास रहा है सत्य स्वरूप। पाऊँगा निज सम्यक् प्रभुता, भास रही निज माँहि अनूप।
सेवा सत्यस्वरूप की, ये ही प्रभु की सेव,
निज सेवा व्यवहार से, निश्चय आतमदेव। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (सोरठा) द्वितीया कृष्णा असाढ़, मरुदेवी के गर्भ में। आय बसे प्रभु आप, सर्वार्थ सिद्धि विमान तें।। गर्भवास दुख रूप तहाँ भी प्रभु आनन्दमय।
माँ को कुछ नहिं कष्ट, रत्न पिटारे ज्यों रहे।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय
श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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