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शुकल पौष दशैं सुखरास है, परम केवलज्ञान प्रकाश है।
भवसमुद्र -उधारन देव की, हम करें नित मंगल सेवकी ॥ ॐ ह्रीं पौषशुक्लदशम्यां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
असित चौदशि जेठ हने अरी, गिरिसमेदथकी शिवतिय वरी।
सकल इन्द्र जज तित आइकैं, हम जजै इत मस्तक नाइकें । ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्ष मंगलमण्डिताय श्री शान्तिनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
रथोद्धता छन्द चन्द्रवर्त्म तथा चन्द्रवत्स (११ वर्ण लाटानुप्रास)
शान्ति शान्तिगुन मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा । मैं तिन्हें भगतिमंडिते सदा, पूजि - हों कलुष-हंडिते सदा ॥१॥
मोक्षहेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन रत्नमाल हो । मैं अबै सुगुनदाम ही धरों, ध्यावते तुरत मुक्तितिय वरों ॥२॥
पद्धरि (१६ मात्रा) जय शान्तिनाथ चिद्रूपराज, भवसागर में अद्भुत जहाज । तुम तजि सरवारथसिद्धि थान, सरवारथजुत गजपुर महान ॥३॥ तित जनम लियो आनंद धार, हरि ततछिन आयो राजद्वार । इन्द्रानी जाय प्रसूत-थान, तुमको कर में लै हरष मान ॥४॥
हरि गोद देय सो मोदधार, सिर चमर अमर ढारत अपार । गिरिराज जाय तित शिला पाण्डु, तापै थाप्यो अभिषेक माँडु ॥५॥
तित पंचम उदधि तनों सुवार, सुरवर कर करि ल्याये उदार । तब इन्द्र सहसकर करि अनन्द, तुम सिर धारा ढार्यो सुमन्द ॥६॥ अघ घघ घघ घघ धुनि होत घोर, भभ भभ भभ धध धध कलशशोर ।
दृम दृम दृम दृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग ॥७॥
तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान । ताथेई थेई थेई थेई थेई सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल ॥८॥
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