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माघशुक्ल तेरस लयो हो, दुर्द्धर तप अविकार
सुरऋषि सुमनन पूजों, पूजों हो अबार | धरम जिनेसुर पूजो । पूजों हो ।
ॐ ह्रीं माघशुक्ला - त्रयोदश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
पौषशुक्ल पूनम हने अरि, केवल लहि भवितार।
गणसुर नरपति पूज्यो, पूजों हो, अबार। धरम जिनेसुर पूजो पूजों हो ।
ऊँ ह्रीं पौषशुक्ला - पूर्णिमायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
कल तिथि चौथ की हो, शिव समेदतैं पाय।
जगत-पूजपद पूजों, पूजों हो अबार । धरम जिनेसुर पूजो । पूजों हो।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठ शुक्ला - चतुथ्र्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5 ।
जयमाला – दोहा
घनाकार करि लोक-पट, सकल- उदधि-मसि तंत।
लिखै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन- अंत || 1 | (छन्द-पद्धरि)
जय धरमनाथ जिन गुन-महान, तुम पदको मैं नित धरों ध्यान जय गरभ-जनम-तप-ज्ञानयुक्त, वर- मोच्छ सुमंगल शर्म-भुक्त॥2॥ जय चिदानन्द आनन्दकन्द, गुनवृन्द सु ध्यावत मुनि अमन्द। जीवन हेतु मित्त, तुम ही हो जग में जिन पवित्त ॥3॥ तुम समवसारण में तत्त्वसार, उपदेश दियो है अति उदार ।
मैं
कोंजे भवि निजत चित्त, धारें ते पावें मोच्छ - वित्त॥4॥ तुम मुख देखत आज पर्म, पायो निज आतमरूप धर्म। मोकों अब भवदधितें निकार, निरभय-पद दीजे परमसार॥5॥ तुम सम मेरो जगमें न कोय, तुमही ते सब विधि काज होय ।
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