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तुम दया धुरन्धर धीर वीर, मेटो जगजनकी सकल पीर।।6।। तुम नीति-निपुन विन रागरोष, शिव-मग दरसावतु हो अदोष। तुम्हरे ही नाम-तने प्रभाव, जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव।।7।। ता” मैं तुमरी शरण आय, यह अरज करतु हों शीश नाय। भव-बाधा मेरी मेट मेट, शिव-राधासों करौं भेंट-भेंट।।
जंजाल जगत को चूर चूर, आनन्द-अनूपम पूर पूर। मति देर करो सुनि अरज एव, हे दीनदयाल जिनेश देव।।9।।
मोको शरना नहिं और ठौर, यह निहचै जानों सुगुन-मौर। वृन्दावन वंदत प्रीति लाय, सब विघन मेट हे धरम-राय।।10।।
(छन्द - घत्तानंद) जय श्रीजिनधर्मं, शिवहितपर्मं, श्रीजिनधर्मं उपदेशा। तुम दयाधुरंधर विनतपुरन्दर, कर उर-मन्दर परवेशा॥11॥ ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जो श्रीपति-पद-जुगल, उगल मिथ्यात जजे भव। ताके दुख सब मिटहिं, लहे आनन्द-समाज सब।। सुर-नर-पति पद भोग, अनुक्रम तैं शिव जावे। वृन्दावन यह जानि धरमजिनके गुन ध्यावे।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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