________________
ले धूप गन्ध मिलाय बहुविध, धूम की सुघटा लिये। सो खेय धूपायन विर्षे, सब कर्मजाल प्रजालिये।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
ले क्रमुक पिस्ता लांगली, अरु दाख बादामें घनी। शुभआम्र कदलीफल अनूपम, देवकुसुमा सोहनी।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ जिवन चंदन अक्षतं, सुमना प्रवर चरु ले दिया।। और धूप फल इकठे सुकरि के, अरघ सुन्दर मैं किया।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक - छन्द मालती जेठ वदी दशमी गनिये प्रभु, गर्भावतार लियो दिने छाये, इन्द्र महोत्सव कर सुरसुरी बहु, राखि गयो जननी ढिग पाछे। देवि करें जननी की तहां बहु, सेव अभेव अनँदही आखे, मैं अब अध्य बनाय जजों पद चाह नहीं मन औरहु राखे।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णदशम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
331