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नश्वर सुख को सुख कहकर मैं, शश्वत सुख को नहीं जाना।
आनन्द-अक्षत लाया हूँ मैं, शाश्वत सुख को है पाना।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 3।। ॐ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
स्पर्शरूप से राग किया मैं, निज-स्वरूप का त्याग किया। निजस्वरूप वश नेमिजिनेश्वर शील-सुमन ही ले आया।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।।4।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
षट्-रस भोजन करते-करते, आत्मरस ना चख पाया। निज-रस अमृत पीने हेतु, समरस-व्यंजन ले आया।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 5।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मोह-तिमिर से अंध बना मैं, भवदुःख ठोकर खाया हूँ। तुम सम केवल मति प्रगटाने ज्ञान-ज्योति को लाया हूँ।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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