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सरित-गंगा अम्बु-सींची, सालि उज्जवल अति घनी।
दुति धरै मुक्ता की मनोहर, सरल दीरघ जुत अनी।। सो अछित औघ अखण्ड कारण, अखै पदकू ल्याय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूजूं, हृदै हरष उपाय ही।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कनक-निर्मय रतन-जडिये, पंच वरण सुहावने। प्रसून सुन्दर अमर तरु के, गन्धजुत अति पावने।। सो लेय समर निवार-कारण, घ्राण-चक्खि-सुहाय ही।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लछिमी-निवास-सरोज-उद्भव, तथा सो मथकी झरै। आमोद पावन मिष्ट अति चित, अमी भुज्जन को हरै।। सो चारु रसनैवेद-कारण, क्षुधा-नाशन ल्याय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 5।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक-दीप मनोग मणिमय, भान-भासुर मोहने।
तम नसै ज्यौं घन-पवन नासै, धूमवर्जित सोहने।। मम मोह-निविड विध्वंस-कारण, लेय जिनगृह आय ही।।
___ श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 6॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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