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कनक-मणिमय सुधर धरिये, पंचवरण सुहावने। जावित्रि आदि अनेक विधि ही, अमर-तरु के पावने।।
सो कुसुम अद्भुत घ्राणहारी, लगें मधु कू प्रेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
खण्ड घृत पकवान सुन्दर, सद्य अनुपम सोहने। अति मिष्ट रसना हरै देखत, क्षुधा-डायन कू हन।।
सो सुष्ट मोदक चारु फैनी, स्वर्ण-भाजनदेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूजूं, अमल गुणगण धेय ही।। 5।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीप मणिमय ज्योति सुन्दर, धूमवर्जित ललित ही। तम मोह पटल विलाय ऐसें, पवन ज्यौं घन चलत ही।। सो कनक-भाजन धारि भविजन, चक्खिकू अति प्रेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।। 6।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
सुभग धूप दशांग चूरण, स्वर्ण-धूपायन भरै। तसु सुरभितें मधु भमैं अति ही, दसौं दिशि मैं रव करै।।
सो द्रव्य भविजन लेहि उत्तम, अगनि के संग खेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।। 7।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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