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तामें सबको पति मोह-चण्ड, ताकों ततछिन करि सहस - खण्ड । फिर ज्ञान-दरस- प्रत्यूह हान, निजगुन- गढ़ लीनों अचल-थान। 5। शुचि ज्ञान दरस सुखवीर्य सार, हुई समवशरण रचना अपार तित भाषे तत्त्व अनेक धार, जाकों सुनि भव्य हिये विचार।6।
निजरूप लह्यो आनन्दकार, भ्रम दूर करनको अति उदार। पुनि नय-प्रमान - निच्छेप सार, दरसायो करि संशय - प्रहार । 7। तामें प्रमान जुगभेद एव, परतच्छ-परोछ रजै स्वमेव।
प्रच्छ के भेद दोय, पहिलो है संविवहार सोय । 8 । ताके जुग-भेद विराजमान, मति-श्रुति सोहें सुन्दर महान। है परमारथ दुतियो प्रतच्छ, हैं भेद-जुगम ता माँहिं दच्छ।9। इक एकदेश इक सर्वदेश, इकदेश उभैविधिसहित वेश । वर अवधि सुमनपरजय विचार, है सकलदेश केवल अपार | 10 चर-अचर लखत जुगपत प्रतच्छ, निरद्वन्द रहित - परपंच पच्छ। पुनि है परोच्छ महँ पंच भेद, समिरति अरु प्रतिभिज्ञान वेद। 11। पुनि तरक और अनुमान मान, आगमजुत पन अब नय बखान। नैगम संग्रह व्यौहार गूढ़, ऋजुसूत्र शब्द अरु समभिरूढ़ ।12। पुनि एवंभूत सु सप्त एम, नय कह जिनेसुर गुन जु ते । पुनि दरव क्षेत्र अर काल भव, निच्छेप चार विधि इमि जनाव। 13 इनको समस्त भाष्यौ विशेष, जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश। निज ज्ञानहेत ये मूलमन्त्र, तुम भाषे श्री जिनवर सु तन्त्र। 14। इत्यादि तत्त्व उपदेश देय, हनि शेष-करम निरवान लेय। गिरवान जजत वसु दरब ईस, वृन्दावन नितप्रति नमत शीश। 15।
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