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वन-ग्राम-नगर-पुर-सर्वदेश, कहि धर्म भव्य तारे महेश | 7 | भवकूप इहै अघ को भण्डर, तिसमें दुख हैं सुख ना लगार। तुम तारण विरद निहारि देव, मैं शरण गही मुझि तारि देव | 8 | दिन सप्तमि सित आषाढ़ मोखि, जिन प्रकृति पिचासी शेष सोखि । गिरनारि शिखर निर्वाण थान, रामचन्द नमै निति धारि ध्यान | 9 | घता छन्द
इह पंच कल्याने, सुरपति ठाने, नरपति खगपति निति ध्यावैं । जो पढ़ें पढ़ावैं, सुर धरि गावें, सो शिव के सुख लहु पावैं ।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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