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दक्षिण दिश वल्लाल नृपति धारानगरी में रहता था। पटरानी उसकी धर्म प्राण सुख वैभव से वह शासक था।। श्री चन्द्रप्रभु के शासन काल में समवशरण सोनागिरि आया।
श्री स्वर्णभद्रादि मुनियों ने दीक्षा ली मन हर्षाया। दीक्षा लेकर जब मुनियों ने सारे भारत में विहार किया। विन्ध्य और सतपुड़ा अंचल में आकर यहाँ ध्यान किया।।
निकट चेलना सरिता तट पर से मोक्षधाम पद पाया। और अनेकों ऋषिवर ने भी जन्म-मरण कर शिवपद पाया ।।
इसलिये सिद्धक्षेत्र पावागिरि को बारंबार वंदन है। चरण-कमल श्री भद्रादिमुनियों को शत-शत वार नमन है ।।
कुन्दकुन्द आचार्य मुनि ने स्वर्णभद्र गुणगान किया। सिद्धक्षेत्र पावागिरी नाम से अजर अमर शिव धाम लिया || प्राचीन काल से पावन नगरी अति उज्ज्वल महान है।
श्री स्वर्णभद्रादि मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम है।। पर मारवंश नृप उदियात्या ने आकर यहाँ पर राज्य किया। दशमी सदी से बारहवी सदी तक निष्कंटक राज किया।
इसी वंश के बल्लाल नृपति धारानगरी राज्य किया। एक दिवस बल्लाल नृपति ने धारा नगरी में शासन किया। पानी पीते ही राजा के पेट में नागिन चली गई । हो निराश जब राजा ने गंगा में प्राण समाई || जीवन नश्वर उसने समझा एक यही कल्याण है।
नृप और रानी दोनों ने पाया लक्ष्य महान है। चलते-चलते दोनों ने जब एक ग्राम डेरा डाला। प्रातः काल जब रानी को एक स्वप्न मन भर आया। श्रद्धाभाव से रानी ने तब राजा को चूना पिलवाया। चूना पीते ही राजा उदर से नागिन वमन द्वारा बाहर आई || अति शीघ्र ही जब राजा के पेट से नागिन बाहर आई। धरती से जब राजा ने स्वर्ण धाम और धन पाये| बल्लाल नृपति ने करी प्रतिज्ञा सौ मंदिर बनवाये। सौ-सौ कुएँ बावड़ी तालाब बनवाये मन भाये।।
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