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कार्तिक सुदी शुभ पौर्णमासी, जनम होत महान । मिथ्यात तम के हरन को जनु, प्रगट भूपर भान ।। रचिनींद माया मात को ले, लीन शचि निजअंक। मैं अरघ सों तुम जजों जुगपद, करहु मोहि निःशंक।। ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लपौर्णमास्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अगहन महीना पौर्णमासी, के दिना भगवन्त । चढ़ पालकी पर जाय वन कच, लोंच करत महन्त ।। सब डार जगको भार भारहिं, होत नगन शरीर ।
मैं अरघ ले पदकंज पूजों, हरो सम्भव पीर ॥ ओं ह्रीं मगसिरशुक्लपौर्णमास्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कार्तिकवदी शुभचौथ के दिन, ज्ञान उपजत जानि । समवसरन विशाल अनुपम, रचत धनपति आनि।। तहां बैठी आनन चारि सोहत, है सुदुंदुभि वाज। वह रूप मनवच सुमरिकें, ले अध्य पूजत आज ।। ओं ह्रीं कार्तिक कृष्णचतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत्रशुक्ल षष्ठी समेद तें, लियो सिद्धथानक जाय। तहँ अंगवर्जित अलख मूरति, ज्ञानमय शुभ पाय ।।
नहिं होत आवागमन तहंतें, रहें सुख में पूर। जिनचरन को ले अरघ पूजों, होत संकट दूर ओं ह्रीं चैत्रशुक्लषष्ठायं मोक्षकल्याणकमण्डिताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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