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अष्टम गुणस्थान में उपशम-क्षपक श्रेणी होती प्रारम्भ। उपशम नौ, दस, ग्यारह तक है नव, दस, बारह क्षायक-सुरम्य।।
अविरत गुणस्थान चौथे में होता सात प्रकृति का क्षय। पंचम, षष्ठम सप्तम में होता है तीन प्रकृति का क्षय।। नवमें गुणस्थान में होता है छत्तीस प्रकृति का क्षय।। दसवे गुणस्थान में होता केवल एक प्रकृति का क्षय।।
क्षीणमोह बारहवे में हो सोलह कर्मप्रकृति का क्षय। इस प्रकार चौथे से बारहवे तक त्रेसठ प्रकृति विलय।।
गुणस्थान तेरहवे में सर्वज्ञ अनंत-चतुष्टयवान्। जीवन-मुक्त परम-औदारिक सकल-ज्ञेय-ज्ञायक भगवान्।।
चौदहवें में शेष प्रकृति पिच्चासी का होता है क्षय। प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती पूर्ण विलय।। उर्ध्व-गमन कर देह-मुक्त हो सिद्ध-शिला लोकाग्र-निवास।
पूर्ण सिद्ध-पर्याय प्रगट होता है सादि अनंत-प्रकाश।। काल अनंत व्यर्थ ही खोये दुःख अनंत अब तक छाये। द्रव्य, क्षेत्र अरु काल, भव भव-परिवर्तन पाँचों पाये।।
पर-भाव में मग्न रहा तो रही विकारी की पर्याय। निज-स्वभाव का आश्रय लेता होती प्रगट शुद्ध पर्याय।।
अष्ट कर्म से रहित अवस्था पाऊँ परम-शुद्ध हे देव। शुद्ध त्रिकाली ध्रुव-स्वभाव से मैं भी सिद्ध बनूँ स्वयमेव।।
इसीलिये हे स्वामी मैंने अष्ट द्रव्य से की है पूजन। तुम समान मैं भी बन जाऊँ ले निज-ध्रुव का अवलम्बन।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
सेही चिन्ह चरण में शोभित श्री अनंत प्रभु पद उर-धार। मन-वच-तन जो ध्यान लगाते हो जाते भव-सागर पार
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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