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श्रीपार्श्वनाथजिन-पूजा अतिशय क्षेत्र (बिहारी, मु. नगर)
जो जग में है पर-उपकारी, धर्म कहे है उन अघहारी। पार्श्व प्रभो निज नित सोहै, वे जगती पै भवि-मन मोहैं।।
नगर बिहारी अतिशय भारी, धरमेश्वर उसमें अघहारी। हे जिन आओ मम मन माँही, आप बिना कोई जग नाहिं।
(दोहा) माँ वामा के लाड़ले, अश्वसेन-सिरताज। माँ मन्दिर राजो विभो, मुक्ति-वधू महाराज। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
है जन्म-मृत्यु से रहित रूप, मम राग-द्वेष का लेश नहीं। क्रोधादिक मल से अमल विभो, पर मल का है परिवेश नहीं।।
वैभाविक-मल से अमल बनूँ, प्रासुक-जल चरण चढ़ाता हूँ।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल हो आत्म निराकुल हो, पर-परणति का परवेश नहीं। सुखशान्ति-सुधा निज में पीते, आकुलता मन में लेश नहीं।।
आकुलित हुआ मैं विषयों में, शुभ चन्दन चरण चढ़ाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 2। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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