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भाव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढ़ाता है। वस्तु-स्वभाव जान जाता तो मान कषाय मिटाता है।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मान-कषाय-विनाशनाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चेतन छल से पर-भावों का माया-जाल बिछाया है। भव-भव की माया कषाय को समकित-पुष्प मिटाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मायाकषाय-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तृष्णा की ज्वाला से लोभी कभी नहीं सुख पाता है। सम्यक् चरु से लोभ नाश कर यह शुचिमय हो जाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन।।5।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय लोभकषाय-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्धकार-अज्ञान जगत में भव-भव भ्रमण कराता है। समकित-दीप प्रकाशित हो तो ज्ञान-नेत्र खुल जाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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