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नमों जसोधर जसधर कारी, नमों अजित वीरज बलधारी ॥ ५ ॥
धनुष पाँच सौं काय विराजै, आयु कोडि पूरब सब छाजें। समवसरण शोभित जिनराजा, भवजल तारनतरन जिहाजा ॥६॥
सम्यक् रत्नत्रय निधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी । शतइन्द्रनि कर वंदित सो है, सुर नर पशु सबके मन मोहैं ॥७॥
दोहा- तुमको पूर्जे वंदना, करें धन्य नर सोय ।
द्यानत सरधा मन धरै, सो भी धर्मी होय ॥ ॐ ह्रीं श्रीसीमन्धरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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