Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रजापनापद) [30 उ.] सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह हुआ पूर्वोक्त सूक्ष्म तेजस्कायिक का वर्णन / 31. [1] ते किं तं बादरतेउक्काइया ? बादरतेउक्काइया प्रणेगविहा पण्णता / तं जहा-इंगाले जाला मुम्मुरे अच्चो अलाए सुद्धागणी उक्का विज्जू असणी णिग्घाए संघरिससमुट्ठिए सूरकंतमणिणिस्सिए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। [31-1 प्र.} वे (पूर्वोक्त) बादर तेजस्कायिक किस प्रकार के हैं ? [31-1 उ.] बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-अंगार, ज्वाला, (जाज्वल्यमान खैर आदि की ज्वाला अथवा अग्नि से सम्बद्ध दीपक की लौ), मुमुर (राख में मिले हुए अग्निकण या भोभर), अचि (अग्नि से पृथक् हुई ज्वाला या लपट), अलात (जलती हुई मशाल या जलती लकड़ी), शुद्ध अग्नि (लोहे के गोले को अग्नि), उल्का, विद्युत् (आकाशीय विद्युत्), अशनि (आकाश से गिरने वाले अग्निकण), निर्घात (वैक्रिय सम्बन्धित प्रशनिपात या विद्युत्पात), संघर्ष-समुत्थित (अरणि आदि की लकड़ी की रगड़ से पैदा होने वाली अग्नि), और सूर्यकान्तमणिनिःसृत (सूर्य की प्रखर किरणों के सम्पर्क से सूर्यकान्तमणि से उत्पन्न होने वाली अग्नि)। इसी प्रकार की अन्य जो भी (अग्नियां) हैं (उन्हें बादर तेजस्कायिकों के रूप में समझना चाहिए / ) [2] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / [31-2] ये (उपर्युक्त बादर तेजस्कायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस - प्रकार-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / [3] तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता / [31-3] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे (पूर्ववत्) असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्णतया अप्राप्त) हैं। [4] तत्थ गं जे ते पज्जत्तगा एएसि जं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिष्पमुहसयसहस्साई / पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति-- जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा / से तं बादरते उक्काइया / से तं तेउक्काइया। [31-4] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों (सहस्रशः) भेद होते हैं। उनके संख्यात लाख योनि-प्रमुख हैं। पर्याप्तक (तेजस्कायिकों) के प्राश्रय से अपर्याप्त (तेजस्कायिक) उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्तक होता है, वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते है।) यह हुई बादर तेजस्कायिक जीवों की प्ररूपणा / (साथ ही) तेजस्कायिक जीवों की भी प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन-तेजस्कायिक जीवों की प्रज्ञापना-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 26 से 31 तक) में तेजस्कायिक जीवों के मुख्य दो प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org