Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५०
आगे तीर्थङ्करप्रकृति के बन्ध का विशेष नियम कहते हैं
पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदाढिचत्तारि। . .
तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते॥१३॥ अर्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व में तथा शेषतीन द्वितीयोपशमसम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व में असंयतसे अप्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त मनुष्य ही तीर्थङ्करप्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं।
विशेषार्थ - यहाँ पर प्रथमोपशमसम्यक्त्व को पृथक् करने का कारण यह है कि "इसका । काल अन्तर्मुहूर्त होने से इस सम्यक्त्व में सोलहकारणभावना नहीं भा सकते अत: इस सम्यक्त्व में | तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध नहीं होता ऐसा किसी का अभिप्राय हो, यही विचार करके पृथक् कहा'' इसः | प्रकार किन्हीं आचार्यों ने कहा है।
"मनुष्य ही तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध करते हैं" ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि अन्यगतिवाते जीव तीर्थक्षरप्रकृति का बन्ध प्रारम्भ नहीं कर सकते, क्योंकि उनके विशिष्टसामग्री का अभाव है। तथा तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध तिर्यञ्चगति के बिना शेष तीनगतियों में होता है। इसके बन्ध का उत्कृष्टकाल । अन्तर्मुहर्तअधिक आठवर्ष तथा वर्षपृथक्त्व कम दोकोटिपूर्व और तैंतीससागर प्रमाण है। इसके बन्ध का प्रारम्भ केवलीद्वय के पादमूल में ही होता है ऐसा नियम है, क्योंकि अन्यत्र उस प्रकार की परिणामविशुद्धि नहीं हो सकती, जिससे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ हो सके।
___ यहाँ पर चतुर्थगुणस्थान से सप्तमगुणस्थान पर्यंत ही तीर्थक्करप्रकृति का बन्ध बताया है तथा ९२ वीं गाथा के विशेषार्थ में चतुर्थगुणस्थान से अपूर्वकरणगुणस्थान के छठेभागपर्यन्त तीर्थक्करप्रकृति का बन्ध कहा है। इसमें यह अभिप्राय है कि तीर्थकरप्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ तो चतुर्थगुणस्थान से सप्तमगुणस्थान पर्यन्त ही होता है, किन्तु आगे आठवेंगुणस्थान के छठेभागपर्यंत बन्ध होता रहता है। अब गुणस्थानों में बन्धव्युच्छित्ति कहते हैं
सोलस पणवीस णभं दस चउ छक्केक बंधवोछिण्णा। . दुग तीस चदुरपुव्वे पण सोलस जोगिणो एक्को ।।९४ ॥
१. कारण यह है कि जिस भव में जीव तीर्थकर बनता है उस अंतिम भव में वह नियम से वर्ष पृथक्त्व तक तीर्थंकर अवस्था में
रहता है तथा विहार आदि करता है। (धवल १२/४९४, धवल ७/५७ षट्खण्ड. परिशीलन...आदि) और तीर्थकर प्रकृति उदय अवस्था में तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता नहीं। अत: वर्ष पृथक्त्व काल और कम किया है।