Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गाम्मटसार कर्मकाण्ड-८३
नपुंसकवेदी निर्वृत्त्यपर्याप्तावस्थासम्बन्धी सन्दृष्टि इस प्रकार है -
बन्धयोग्यप्रकृति १०८ । गुणस्थान तीन । गुणस्थान | बन्ध | अबन्ध व्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व
१ (तीर्थचर) १३ (गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक नरकायु)
२४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यञ्चायु) असंयत
३७ (२४+१४-१ तीर्थक्कर) ९ (गुणस्थानोक्त १०१ मनुष्यायु)
सासादन
पुरुषवेदी के बन्धयोग्यप्रकृति १२० । गुणस्थान आदि के ९। यहाँ अपूर्वकरणगुणस्थानपर्यन्त सर्वकथन गुणस्थानवत् ही है। तद्यथा - मिथ्यात्वगुणस्थानसे अपूर्वकरणगुणस्थानपर्यन्त बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियाँ यथाक्रम से १६-२५-शून्य-१०-४-६-१-३६ तथा क्षपकअनिवृत्तिकरणसम्बन्धी प्रथमभाग के चरमसमय में १ पुरुषवेदकी व्युच्छित्ति हुई। बन्ध यथाक्रमसे ११७-१०१-७४-७७-६७६३-५९-५८ तथा अनिवृत्तिकरणके प्रथम भाग के चरमसमयपर्यन्त २२ प्रकृतिका | अबन्ध गुणस्थानक्रमसे ३-१९-४६-४३-५३-५७-६१-६२ तथा अनिवृत्तिकरणके प्रथमभाग के चरमसमयपर्यन्त ९८ प्रकृतिका है। इसकी सन्दृष्टि १०३-१०४ गाथा सम्बन्धी सन्दृष्टि के अनुसार जानना। - पुरुषवेदीनिर्वृत्त्यपर्याप्तावस्था में नरकगतिबिना शेष तीनगतिवाले जीवों के बन्धयोग्य ११२ प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि चारआयु, नरकद्विक और आहारकद्विकका बन्ध नहीं है। गुणस्थान तीन। मिथ्यात्वगुणस्थान में व्युच्छित्ति प्रकृति १३, बन्धयोग्यप्रकृति सुरचतुष्क व तीर्थङ्करके बिना १०७ प्रकृतिका, अबन्धप्रकृति ५ हैं। सासादनगुणस्थान में व्युच्छिन्नप्रकृति २४, बन्ध ९४ प्रकृतिका तथा अबन्ध १८ प्रकृतिका । असंयतगुणस्थान में व्युच्छिन्न प्रकृति ९, सुरचतुष्क व तीर्थङ्करसहित बन्ध ७५ प्रकृतिका तथा अबन्ध ३७ प्रकृतिका । यहाँ तीर्थङ्कर और आहारकद्विकका उदय स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी के नहीं होता, केवल पुरुषवेदीके ही होता है, किन्तु इनका बन्ध तीनों ही वेदवालोंके होता है।