Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
B...
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ४४२
उपर्युक्त मोहनीयकर्म के बन्धस्थानों को गुणस्थानापेक्षा कहते हैं— बावीसमेक्कवीसं, सत्तर सत्तार तेर तिसु णवयं । थूले पणचदुतियदुगमेक्कं मोहस्स ठाणाणि ॥४६४ ॥
अर्थ- मोहनीय कर्म के उपर्युक्त बन्धस्थानों में से मिथ्यात्वगुणस्थान में २२ प्रकृतिरूप, सासादन गुणस्थान में २१ प्रकृति रूप, मिश्र और असंयतगुणस्थान में १७- १७ प्रकृति रूप, देशसंयतगुणस्थान में १३ प्रकृति रूप, प्रमत्तादि तीन गुणस्थानों में ९ ९ प्रकृति रूप बन्धस्थान हैं तथा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ५-४-३२ और १ प्रकृति रूप ५ स्थान हैं।
अब उपर्युक्त स्थानों में ध्रुवबन्धी प्रकृतियों को कहते हैं
उगुवीसं अट्ठारस, चोद्दस चोद्दस य दस य तिसु छक्कं । थूले चदुतिदुगेक्कं, मोहस् य होंति धुवबंधा ॥। ४६५ ॥
अर्थ - मिध्यात्वगुणस्थान से देशसंयतगुणस्थान पर्यंत १९- १८-१४- १४ और १० प्रमत्तादि तीन गुणस्थानों में ६-६-६, अनिवृत्तिकरणगुणस्थान में ४-३ २ और १ इस प्रकार मोहनीयकर्म की ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं ।
विशेषार्थ- मिध्यात्वगुणस्थान में मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय और जुगुप्सा ये १९ प्रकृति ध्रुवबन्धी तथा हास्य व शोक में से एक, रति- अरति में से एक, तीन वेद में से एक इस प्रकार ये तीन प्रकृति अध्रुवबन्धी हैं। सासादन गुणस्थान में उपर्युक्त १९ प्रकृति में से १ मिध्यात्वप्रकृति कम करके १८ प्रकृति ध्रुवबन्धी हैं और अध्रुवप्रकृति पूर्वोक्त तीन हैं। मिश्र और असंयतगुणस्थान उपर्युक्त १८ प्रकृति में से अनंतानुबंधी कषाय ४ कम करने से १४ प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धी हैं तथा अध्रुवबन्धी ३ प्रकृतियाँ पूर्वोक्त ही हैं। देशसंयतगुणस्थान में उपर्युक्त १४ प्रकृति में से अप्रत्याख्यान की ४ कषाय कम करने से १० प्रकृति ध्रुवबन्धी हैं तथा अध्रुवप्रकृति ३ पूर्ववत् ही हैं। प्रमत्त अप्रमत्त और अपूर्वकरणगुणस्थान में उपर्युक्त १० प्रकृतिमें से प्रत्याख्यानकी ४ कषाय कम करनेसे ६ प्रकृति ध्रुवबन्धी हैं, अध्रुवप्रकृति पूर्ववत् ही ३ जानना । अनिवृत्तिकरणगुणस्थान के प्रथम भाग में उपर्युक्त ६ प्रकृति में से भय - जुगुप्सा प्रकृति कम करने से ४ प्रकृति ध्रुवबन्धी हैं और १ पुरुषवेद अध्रुवप्रकृति है। द्वितीयभाग में-सञ्ज्वलन क्रोध-मानमाया - लोभ ये चार प्रकृति ध्रुवबन्धी हैं। तृतीय भाग में- सञ्चलनमान - माया - लोभ ये तीन, चतुर्थ भाग में- सज्वलनमाया - लोभ ये दो और पाँचवें भाग में सञ्चलनलोभ यह एक प्रकृतिध्रुवबन्धी है।
मोहनीय कर्म के बन्धस्थानों के भंगों का विधान एवं उनकी संख्या दो गाथाओं में
कहते हैं