Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ४९७
तृतीय मेघापृथ्वीपर्यन्तके ही जीव बाँधते हैं, किन्तु मनुष्यगतियुक्त २९ प्रकृतिका बन्ध छठे नरकतकके नारकी जीव करते हैं तथा मार्गणाओंमें गुणस्थानकी विवक्षासे उन स्थानोंका लगाना सुगम है इसलिए गति-इन्द्रिय-पर्याप्तादिके विशेष स्थान कहते हैं—मिथ्यात्व - सासादनगुणस्थानवर्ती नारकीजीव तिर्यञ्चमनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिक स्थानको बाँधते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टिजीव मनुष्यगतिसहित २९ प्रकृतिक स्थानको ही बाँधते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चद्विक और उद्योतकी बन्धव्युच्छित्ति सासादनगुणस्थान में हो जाती है तथा असंयतजीव मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिक स्थान एवं प्रथम तीननरकोंमें पर्याप्त मनुष्यगति व तीर्थङ्करसहित ३० प्रकृतिरूप स्थानको बाँधते हैं । तिर्यञ्चगतिमें आदिके जो ६ स्थान हैं उनमें स्थावरबादरअपर्याप्तएकेन्द्रिय. या स्थावरसक्ष्म अपर्याएकेन्द्रियसहित १३ प्रकृति स्थानको बाँधते हैं तथा एकेन्द्रियबादरपर्याप्तसहित या एकेन्द्रियसूक्ष्मपर्याप्तसहित अथवा त्रसअपर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चगतिसहित अथवा त्रसअपर्याप्त मनुष्यगतिसहित २५ प्रकृतिके स्थानको बाँधते हैं। बादरपृथ्वीकायएकेन्द्रियजीव आतप और तिर्यञ्चगतिसहित अथवा तेज वायुकाय तथा साधारणबिना अन्य एकेन्द्रियबादर पर्याप्तजीव उद्योत व तिर्यञ्चगतिसहित २६ प्रकृतिक स्थानको बाँधते हैं। त्रसपर्याप्तपंचेन्द्रियजीव नरकगतिसंयुक्त या देवगतिसहित २८ प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करते हैं। सपर्याप्तद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियजीव तिर्यञ्चगतिसहित अथवा मनुष्यगतिसंयुक्त २९ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं। त्रसबादरपर्याप्तहीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय अथवा पञ्चेन्द्रियजीव तिर्यञ्चगति व उद्योतसहित ३० प्रकृतिक स्थानको बाँधते हैं। इसप्रकार ये ६ स्थान हैं । तथैव लब्ध्यपर्याप्ततिर्यञ्चजीव २८ प्रकृतिक स्थानके बिना पाँच ही स्थानोंका बन्ध करते हैं, मनुष्यगतिमें सर्वस्थानोंको बाँधते हैं एवं देवगति २५-२६- २९ और ३० प्रकृतिरूप चार स्थानोंको बाँधते हैं। देव मरकर पर्याप्त केन्द्रियों में उत्पन्न हो सकता है इसलिये उसके २५ प्रकृतिक बन्धस्थान तथा आतप या उद्योतसहित २६ प्रकृतिक एवं संज्ञीपर्याप्ततिर्यंच- मनुष्यसंयुक्त २९-३० प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध संभव है।
अथानन्तर इन्द्रियादि मार्गणाओंमें नामकर्मके बन्धस्थान कहते हैं
पंचक्खतसे सव्वं, अडवीसूणादिछक्कयं सेसे। चमणवयणोराले, सड देवं वा विगुव्वदुगे ।। ५४५ ।।
अर्थ- इन्द्रियमार्गणा में पञ्चेन्द्रियके और कायमार्गणामें त्रसकायके सर्व बन्धस्थान हैं। अवशेष एकेन्द्रियादिक चारमें और पृथ्वीकायादि पाँचमें आदिके छह स्थानों में से २८ प्रकृतिक स्थानकेबिना पाँच-पाँच बन्धस्थान जानना । चारमनोयोग - चारवचनयोग एवं औदारिककाययोगमें सर्व बन्धस्थान हैं और वैक्रियक- वैक्रियकमिश्रकाययोगमें देवगतिवत् चार स्थान हैं।