Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७९७
७वें, ८वें आदि उपान्त व अन्तिमस्थितिभेदमें अनुकृष्टिरचना जानना। सर्वत्र अधस्तनस्थितिभेदका द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ अनुकृष्टिखण्डमें जो द्रव्य होवे सो उपरितनस्थितिभेदके प्रथम, द्वितीय व तृतीय अनुकृष्टिखण्डमें लिखना तथा उपरितनस्थितिभेदके सर्वद्रव्यमेंसे तीनों खण्डोंका प्रमाण जोड़कर घटानेसे जो अवशेष सो चतुर्थखण्डमें प्रमाण लिखना। इसप्रकार अधस्तनस्थितिके उपरितनस्थितिके अध्यवसायोंकी समानता पाई जाती है।
किसी जीवके जिन अध्यवसायोंसे अधस्तनस्थिति बँधती है उन ही परिणामोंसे किसी जीवक्के उपरितनस्थिति भी बँधती है। इसप्रकार समानता होनेसे अनुकृष्टिरचना कहीं। यहाँ अधस्तनस्थितिका जघन्यखण्ड उपरितनस्थितिके खण्डोंसे तथा उपरितनस्थितिका उत्कृष्टखण्ड अधस्तनखंडोंके समान नहीं है ऐसा जानना । इसप्रकार आयुकर्मक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान कहे।
नानाजीवोंकी अपेक्षा स्तोकस्थितिथे भूत जोति धावसारधाड़ हैं अससे अधिक स्थितिके कारणभूत जो बन्धाध्यवसायस्थान हैं इन दोनोंमें समानता भी होती है अतः यहाँ गाथा ९०७ में दिये हुए अध:करणसम्बन्धो कोष्ठक (सन्दृष्टि) के अनुसार अनुकृष्टिविधान सम्भव है, किन्तु उस सन्दृष्टिकी अपेक्षा यहाँ कुछ अंतर है। अतः अनुकृष्टिके गच्छ या खण्ड ४ माननेपर निम्नानुसार सन्दृष्टि बनेगी। तद्यथा
स्थिति
अध्यवसायस्थान
अनुकृष्टिखण्ड
जघन्य
२२
८८
जघन्य+१ समय जघन्य+२ समय जघन्य+३ समय
३५२
१४०८
७०
अथानन्तर यहाँ प्रत्येक स्थिति भेदसम्बन्धी अध्यवसायोंमें नानाजीवों की अपेक्षा खण्ड पाए जाते हैं। किसी जीवके जिन अध्यवसायस्थानोंसे अधस्तनस्थिति बँधती है तथा अन्य किसी के उन ही स्थानोंसे उपरितनस्थिति भी बंधती है, इसप्रकार ऊपर ब नीचे समानता समझकर अनुकृष्टि विधान कहते हैं
पल्लासंखेजदिमा, अणुकट्ठी तत्तियाणि खंडाणि ।
अहियकमाणि तिरिच्छे चरिमं खंडं च अहियं तु ।।९५४ ।।
अर्थ-स्थितिबंधाध्यवसायस्थानोंकी अनुकृष्टिरचनामें पल्यके असंख्यातवेंभाग अनुकृष्टिपदोंका (गच्छका) प्रमाण है और उतने हो अनुकृष्टिखण्ड होते हैं। ये खण्ड तिर्यक् (बराबर) रचना किये गए क्रमसे अनुकृष्टिके चयसे अधिक- अधिक हैं, किन्तु जघन्यखण्डसे अन्तिमखण्ड कुछ ही विशेष अधिक है दूना-तिगुना नहीं होता।