Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 843
________________ गोम्मटसार कर्मकाण्ड - ८०४ द्वितीयादि स्थितियोग्य द्वितीयादि निषेकसे उत्कृष्टस्थितिरूप अन्तिमनिषेकपर्यन्त रचना जाननी । यहाँ जघन्यस्थितिसम्बन्धी जघन्यस्थितिबंधाध्यवसायस्थानोंसे असंख्यातगुणे प्रथमनिषेकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान जानना तथा उसीके दूसरे स्थानमें द्वितीय निषेकप्रमाण जानना ऐसा क्रम है एवं अनुभागबन्धाध्यवसायोंकी नानगुणहानिशलाकाओं के विषयमें आचार्योंके दो मत हैं । एकमतानुसार नानागुणहानि है, दूसरे मतानुसार गुण नहीं है। आगे ग्रन्थकर्ता श्री नेमिचन्द्राचार्य ग्रन्थ रचने की प्रतिज्ञा पूर्णकरके प्रशस्तिरूप आठ गाथाएँ कहते हैं गोम्मटसंगहसुत्तं, गोम्मटदेवेण गोम्मटं रयिदं । कम्माण णिज्जरङ्कं तच्चट्ठवधारणङ्कं च ।। ९६५ ।। अर्थ- गोम्मटदेव- वर्धमानतीर्थंकरदेवने संग्रहरूप इस गोम्मटसारग्रन्थका विषय प्रमाण और नयके गोचर कहा है । अतः इस ग्रन्थके स्वाध्यायसे ज्ञानावरणादिकमकी निर्जरा और तत्त्वोंके स्वरूपका निश्चय होता है, ऐसा जानना चाहिए। जहि गुणा विस्संता, गणहरदेवादिइढिपत्ताणं । सो अजिदसेणणाहो, जस्स गुरू जयदु सो राओ ।।९६६ ।। अर्थ- बुद्धि आदि ऋद्धि प्राप्त गणधरदेवादिके समान जिनमें गुण हैं ऐसे अजितसेनमुनिनाथ जिसके व्रत (दीक्षा) देनेवाले गुरु हैं वह राजा चामुण्डराय सर्वोत्कृष्ट रूपसे जयशील हो । सिद्धंतुदयतडुग्गयणिम्मलवरणेमिचंदकरकलिया। गुणरयणभुसणंबुहिमइबेला भरउ भुवणयलं ।। ९६७ ॥ अर्थ - सिद्धान्तरूप उदयाचलपर जिनका ज्ञान उदयको प्राप्त हुआ है ऐसे चन्द्रमाके समान नेमिचन्द्राचार्यकी वचनरूपी किरणोंसे सम्बन्धित गुणरूपी रत्नोंसे शोभित चामुण्डरायकी बुद्विरूप बेला समस्त जगत् में अतिशय से विस्तार प्राप्त करे । गोम्मटसंगहसुत्तं, गोम्पटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य । गोम्मटरायविणिम्मियदक्खिणकुक्कुडजिणो जयदु ॥ ९६८ ॥ अर्थ - गोम्मटशिखरपर चामुण्डरायराजाने जो जिनमन्दिर बनवाया उसमें एक हस्तप्रमाण इन्द्रनीलमणिमय नेमिनाथ तीर्थङ्करदेवका प्रतिबिम्ब विराजमान किया तथा भारतके दक्षिणप्रान्तमें श्रवणबेलगोला पर्वतपर निर्मापित बाहुबलीस्वामीकी प्रतिमा विराजमान की । वह प्रतिबिम्ब तथा गोम्मटसारसंग्रहग्रन्थ जयवंत हो।

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