Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 800
________________ गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७६१ पचयधणस्साणणये, पचयं पभवं तु पचयमेव हवे। रूऊणपदं तु पई, सन्जयति होदि शियमेशा !!१०४ ।। अर्थ - प्रचयधम प्राप्त करनेमें जो वृद्धि हुई है वह प्रचय है और जो आदि में होता है वह प्रभव है जो प्रचय ही है। एककमपद (गच्छ) सो यहाँ पदका प्रमाण है। आदिप्रमाणमें जो वृद्धि हुई वह चय है विशेषार्थ - प्रथमस्थानमें चयका अभाव है अतः यहाँ गच्छका प्रमाण विवक्षित मच्छके प्रमाणसे एककम (१६-१) जानना । ऊर्ध्वरचनामें चयका प्रमाण चार है अतः आदि ४ और उत्तर ४ और गच्छके प्रमाण १६में से एककम करनेसे गच्छ १५ । यहाँ 'पदमेगेण विहीणं, दुभाजिदं उत्तरेण संगुणिदं। पभवजुदं पदगुणिदं पदगणिदं होदि सव्वत्थ ॥१६४ ।। इस करणसूत्र से प्रचयधन प्राप्त करते हैं। तद्यथा-एककमपदको २ से भागदेकर चयसे गुणा करे तथा आदिको मिलाकर गच्छसे गुणा करनेपर चयधनका जोड़ होता है। अकसन्दृष्टिमें-गच्छ १५में से एककम कर (१५-१) पद १४ को २ से भाग देनेपर (१४२२) ७ आया इसको चय (४) से गुणा किया तो (3x४) २८ हुआ इसमें (आदिधन) ४ मिलानेसे (२८+४) ३२ लब्ध आया इसको गच्छके प्रमाण १५से गुणा करनेपर (३२४१५) ४८०, सो यह प्रचयधनका प्रमाण है। अब अनुकृष्टिके प्रथमखण्डका प्रमाण कहते हैं पडिसमयधणेवि पदं, पचयं पभवं च होदि तेरिच्छे । अणुकट्टिपदं सव्वद्धाणस्स य संखभागो हु।।९०५ ।। अर्थ - प्रत्येकसमयके धनमें अनुकृष्टिके गच्छ, चय आदि (प्रभव) सभीकी रचना तिर्यग्रूपसे होती है और अनुकृष्टिका गच्छ, सर्वअध्वान अर्थात् ऊर्ध्व गच्छके संख्यातवेंभागप्रमाण निश्चयसे होता विशेषार्थ - परिपाटीक्रमसे विरचित इन परिणामोंसे पुनरुक्त और अपुनरुक्तभावका अनुसन्धान करना अनुकृष्टि है। अथवा 'अनुकर्षणमनुकृष्टि' परिणामोंकी परस्पर समानताका विचार करना वह अनुकृष्टिका एकार्थ है। अनुकृष्टिका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र अवस्थित स्वरूप है, क्योंकि यह काल १. त्रिलोकसार। २. ज.ध.पु.१२ पृ. २३५ ।

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