Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७६९
उत्कृष्टस्थितिकाण्डकघात होता है, क्योंकि जघन्यस्थितिसत्कर्म से संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्मके साथ आकर अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके प्रथमसमयमें उक्त स्थितिकाण्डकघात होता है। अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयके स्थितिबन्धसे पल्योपमके संख्यातभागहीन अपूर्वस्थितिबन्धको अपूर्वकरणके प्रथमसमय में प्रारम्भ करता है। अनुभागकाण्डकघात अप्रशस्तकर्मोंका ही होता है, क्योंकि विशुद्धि के कारण प्रशस्तकौंकी अनुभागवृद्धिको छोड़कर उसका घात नहीं हो सकता। उस अनुभागकाण्डकका प्रमाण तत्कालभावी द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्मके अनन्तबहुभागप्रमाण है, क्योंकि करणपरिणामोंके द्वारा घाते जानेवाले अनुभागकाण्डकके अन्य विकल्पोंका होना असम्भव है। एकप्रदेशगुणहानि स्थानान्तरके भीतर अनुभागसम्बन्धी स्पर्धक अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तभाग प्रमाण होकर भी आगे कहे जानेवाले पदोंकी अपेक्षा स्तोक हैं। उपरिम अनुभागसम्बन्धी स्पर्धकोंका अपकर्षण करते हुए जितने अनुभागस्पर्धकोंको जघन्यरूपसे अतिस्थापित करके उनसे अधस्तनवर्ती स्पर्धक निक्षेपरूप से स्थापित करता है। वे जघन्यअतिस्थापनाविषयकस्पर्धक एकप्रदेशगुणहानि स्थानन्तरके स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं, उससे निक्षेपस्प्लन्थी स्पर्धक अनन्तगणो दोहे हैं, उससे काण्डकापसे ग्रहण किये गये स्पर्धक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक अनुभागकाण्डकघातमें अनुभागसत्कर्मके अमन्तवेंभागको छोड़कर शेष अमन्तबहुभागको काण्डकापसे ग्रहण किया जाता है। अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें ही आयुकर्मके अतिरिक्त शेषकर्मोंका गुणश्रेणीनिक्षेप होता है। उसका काल अनिवृत्तिकरण और अपूर्वकरणके समुदितकाल (अन्तर्मुहूर्त) से अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवेंभाग विशेष अधिक है। गुणश्रेणिकी रचनाका क्रम इसप्रकार है-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें डेढ़गुणहानिप्रमाण समथप्रबद्धों को अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजितकर वहाँ लब्धरूपसे प्राप्त एकखण्डप्रमाण द्रव्य का अपकर्षणकरके उसमें असंख्यातलोकका भाग देनेपर, एकभाग द्रव्यको उदयावलिके भीतर गोपुच्छाकाररूपसे निक्षिप्तकर पुनः शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिके बाहर निक्षिप्त करता हुआ उदयावलि के बाहर अनन्तरस्थितिमें असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करता है। उससे उपरिमस्थितिमें असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इसप्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिककालमें गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता है। गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुणाहीन द्रव्य देकर उसके ऊपर गोपुच्छाकार से द्रव्य दिया जाता है। इसी प्रकार अपूर्वकरण के द्वितीयादि समयों में भी गुणश्रेणिनिक्षेप होता है। स्थितिकाण्डक का काल और स्थितिबन्धका काल तुल्य है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थिति काण्डकोत्कीर्णकाल और प्रथम स्थितिबन्धकाल से द्वितीयादि स्थितिकाण्डकोत्कीर्णकाल और द्वितीयादि स्थिति बन्धों का काल यथाक्रम विशेषहीनविशेषहीन होता है। एक स्थितिकाण्डक में हजारों अनुभागकाण्डक होते हैं। इस प्रकार बहुत हजारस्थितिकाण्डकों के व्यतीत होने पर अपूर्वकरण का काल समाप्त होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय के स्थिति सत्कर्म से अन्तिम समय में सत्कर्भ संख्यातगुणा हीन हैं।