Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 825
________________ ___ गोम्मटसार कर्मकाण्ड-७८६ अप्पिटपंति चरिमो, जेत्तियमेत्ताण वग्गमूलाणं । छिदिणिवहोत्ति णिहाणिय, सेसं च य मेलिदे इट्ठा ।।९३६ ।। इवसलायपमाणे, दुगसंवग्गे कदे दु इट्ठस्स । पयडिस्स य अण्णोण्णाभत्थपमाणं हवे णियमा ।।९३७ ।। अर्थ - अपनी-अपनी इष्ट पंक्तियोंमें जितने अन्तस्थान हों उतने वर्गमूलोंके अर्धच्छेदोंका समूहरूप ऐसा निर्धारणकर और शेषको मिलानेसे अपने-अपने विवक्षित-कर्मकी स्थितिसम्बन्धी नानागुणहानि होती है तथा अपनी-अपनी नानागुणहानिशलाका-प्रमाण दो के अंक लिखकर परस्पर गुणा करनेसे अपनी इष्ट कर्मप्रकृतिसम्बन्धी अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण होता है। विशेषार्थ - "अन्तधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूऊणुत्तरभजिय' इस सूत्रके अनुसार १० कोड़ाकोड़ीसागर सम्बन्धी पंक्ति जिसप्रकार कथन किया था वैसे ही यहाँ भी जानना, किन्तु विशेष इतना है कि अन्त व आदिधनका प्रमाण इन छहों पंक्तियों में क्रमसे दूना, तिगुना, चौगुना, पञ्चगुना, छहगुना और सातगुना है। अतः इच्छाराशि के दोगुणे, तिगुनेआदिरूप होनेसे पंक्तिमें सभी दूने तिगुने हो जाते हैं। यहाँ २० कोड़ाकोड़ीसागर की पंक्तिमें पल्यके अर्धच्छेदोंके चतुर्थभागरूप अन्तधन को ८ से गुणा करनेपर पल्यके अर्धच्छेदोंसे दूना प्रमाण होता है सो इसमेंसे आविधन का प्रमाण पल्यकी वर्गशलाकाके अर्धच्छेदोंसे १४ गुणे कमकरना सो इस प्रमाणको स्तोक जानकर इसमें कुछ कम करना तथा इसमें एककम गुणकार (८-१) ७ का भाग देना, इस प्रकारसे कुछकम दूना पल्यके अर्धच्छेदोंका सातवाँभागप्रमाण लब्ध आया, यह नाना-गुणहानिरूप राशि जानना तथा इस प्रमाणको पूर्वोक्तप्रकार सहनानीके लिये आठसे गुणा करे और आठ ही का भाग देवे। यहाँ गुणकारमेंसे एक पृथक् रखा तो अवशेष गुणकार ७ रहा और पहले भागहार भी ७ कहा था उनको समान जानकर अपवर्तन किया। किंचित् ऊन पल्यके दूने अर्धच्छेद किंचित् ऊन प.अ. किंचित् ऊन प.अ.४७ किंचित ऊन प.अ.. ८७८ अवशेष किंचित् कम पल्यके अर्धच्छेदोंमें गुणकार दो और भागहार आठ रहा। इनका अपवर्तन करनेसे कुछकम पल्यके अर्धच्छेदोंका चतुर्थभाग रहा। (+ 9 ) सो इतनीबार दोके अंक लिखकर परस्पर गुणा करने से कुछ कम पल्य का द्वितीय वर्गमूल हुआ तथा जो एक गुणकार पृथक् रखा था वह गुणकार कुछकम पल्यके दूने अर्धच्छेदोंके ५६वा भाग था ( किंचित् ऊन प.के २ अ.उंद ) अत: इतनीबार दोके अंक लिखकर परस्परमें गुणा करनेसे यथायोग्य असंख्यात प्राप्त हुआ। इससे गुणा करनेपर असंख्यातगुणा कुछकम पल्यका द्वितीयवर्गमूलप्रमाण इसकी अन्योन्याभ्यस्तराशि हुई। किचित् ऊन प.के२ अ.छेद

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